भारत में जिस शास्त्र की मदद से निरोगी होकर जीवन व्यतीत करने का ज्ञान मिलता है उसे आयुर्वेद कहते है । आयुर्वेद में निरोगी होकर जीवन व्यतीत करना ही धर्म माना गया है । रोगी होकर लम्बी आयु को प्राप्त करना या निरोगी होकर कम आयु को प्राप्त करना दोनों ही आयुर्वेद में मान्य नहीं है । इसलिये जो भी नागरिक अपने जीवन को निरोगी रखकर लम्बी आयु चाहते हैं , उन सभी को आयुर्वेद के ज्ञान को अपने जीवन में धारण करना चाहिए । निरोगी जीवन के बिना किसी को भी ध कान की प्राप्ति , सुख की प्राप्ति , धर्म की प्रप्ति नहीं हो सकती है । रोगी व्यक्ति किसी भी तरह का सुख प्राप्त नहीं कर सकता है । रोगी व्यक्ति कोई भी कार्य करके ठीक से धन भी नहीं कमा सकता है । हमारा स्वस्थ शरीर ही सभी तरह के ज्ञान को प्राप्त कर सकता है । शरीर के नष्ट हो जाने पर संसार की सभी वस्तुयें बेकार हैं । यदि स्वस्थ शरीर है तो सभी प्रकार के सुखों का आनन्द लिया जा सकता है । दुनिया में आयुर्वेद ही एक मात्र शास्त्र या चिकित्सा पद्धति है जो मनुष्य को निरोगी जीवन देने की गारंटी देता है । बाकी अन्य सभी चिकित्सा पद्धतियों में पहले बीमार बनें फिर आपका इलाज किया जायेगा , लेकिन गारंटी कुछ भी नहीं है । आयुर्वेद एक शाश्वत एवं सातत्य वाला शास्त्र है । इसकी उत्पत्ति सृष्टि के रचियता श्री ब्रहृमाजी के द्वारा हुई ऐसा कहा जाता है । ब्रहृमाजी ने आयुर्वेद का ज्ञान दक्ष प्रजापति को दिया । श्री दक्ष प्रजापति ने यह ज्ञान अश्विनी कुमारों को दिया । उसके बाद यह ज्ञान देवताओं के राजा इन्द्र के पास पहुँचा । देवराजा इन्द्र ने इस ज्ञान को ऋषियों - मुनियों जैसे आत्रेय , पुतर्वसु आदि को दिया । उसके बाद यह ज्ञान पृथ्वी पर फैलता चला गया । इस ज्ञान को पृथ्वी पर फैलाने वाले अनेक महान ऋषि एवं वैद्य हुये हैं । जो समय - समय पर आते रहे और लोगों को यह ज्ञान देते रहे हैं । जैसे चरक ऋषि , सुश्रुत , आत्रेय ऋषि , पुनर्वसु ऋषि , काश्यप ऋषि आदि - आदि । इसी श्रृंखला में एक महान ऋषि हुये वाग्भट्ट ऋषि जिन्होंने आयुर्वेद के ज्ञान को लोगों तक पहुँचाने के लिये एक शास्त्र की रचना की , जिसका नाम अष्टांग हृदयम् ।
| संकलन/संपादन | राजीव दीक्षित |
|---|---|
| भाषा | हिंदी |
| पन्ने | 120 |
| साइज | 3.4MB |
| मूल्य | 0 |
हमे सहयोग कीजिए
!doctype>
0 टिप्पणियाँ