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बुढ़ापे कि दिनचर्या, वात प्रकृति वालो कि दिनचर्या

बुढ़ापे कि दिनचर्या, वात प्रकृति वालो कि दिनचर्या

बुढ़ापे कि दिनचर्या, वात प्रकृति वालो कि दिनचर्या

आयुर्वेद में दिनचर्या पर गहन शोध हुयें है। असल में आयुर्वेद की दिनचर्या वात, पित्त एवं कफ के कालों के प्रभाव को दृष्टि में रखकर निर्धारित की जाती है। यह प्रकृति के साथ सामंजस्य से चलने का सही तरीका है जिससे व्यक्ति स्वतः ही निरोग रहता है। हम जनते है कि दिनचर्या शरीर की प्रकृति एवं उम्र की अवस्था आदि पर भी निर्भर करती है। 60 वर्ष से अधिक होने कि स्थिति में वात शरीर में प्रबल होता है। इन दिनों में वात की समस्याएं होना प्राकृतिक है। तीनों दोषों में सर्वाधिक बलवान वात है। वात के लोगों को भाग-दौर बहुत कम करनी चाहिए और दिशा निर्देश देने का कार्य ज्यादा करना चाहिए।

वात क्या है? 

पेट से नीचें वात का क्षेत्र होता है जिसके बिगड़ने से 80 तरह कि बीमारिया आती है। वात के लोगों को आराम अधिक से अधिक करना चाहिए। अपच के कारण कब्ज होता है तथा इसके कारण गैस बनती है तो वात रोग पैदा हो जाता है। इसलिए वात प्रकृति के लोगो को खान-पान पर विशेष ध्यान देना चाहिए। भोजन करने के नियमों तथा पानी पिने के नियमों का पालन अवश्य करें। प्रतिदिन फल, चोकर युक्त रोटी, अंकुरित हरे मूंग तथा दोपहर में सलाद का अधिक उपयोग करना चाहिए। दिन में आठ-दस गिलास पानी पीना पियें। कड़वे चटपरे, कसैले पदार्थ वायु को बढ़ाने वाले हैं । जो रस (पदार्थ) कफ को बढ़ाते हैं अर्थात मीठे, खट्टे, नमकीन ही वायु को शान्त करते हैं। अतः इनका अधिक सेवन करना चाहिए।


हम जानते है ऋतुओं का हमारे शरीर पर विशेष प्रभाव पड़ता है। वात, पित्त, कफ का प्रकोप आहार-विहार के अतिरिक्त धातुओं के प्रभाव से भी होता है । जैसे, वात-ग्रीष्म ऋतु में संचित होता है, वर्षा ऋतु में कुपित रहता है और शरद ऋतु में शान्त रहता है । अतः वर्षा ऋतु में वात रोगीओं को विशेष देखभाल की जरूरत होती है ।

वात के प्रकोप व दिनचर्या

शरीर में सूखापन, जोड़ों में दर्द, जकडन,  खासकर पैरो कि बिमरियां, पक्षाघात, संधिवात, गठिया, वातज्वर होना, कम सुनाइ देना, अंगों में वायु का भरा रहना, कब्जियत रहना, मानसिक अशान्ति या लगातार तनावयुक्त या चिन्तामग्न रहना, अत्याधिक शोक का अनुभव करना, भयभीत रहना, चित्त की चंचलता, धैर्यहीनता, अत्याधिक क्रोध, उत्तेजना अथवा अन्य विकृतियां वात रोगियों को होते है। मन को स्थिर रखने के लिए इश्वार्भ्क्ति , स्वाध्याय, योग-प्राणायाम, ब्रह्मचर्य-पालन आदि अपने जीवन में अपनाएं।

प्रातः - जैसे बच्चो को भरपूर नींद लेना आवश्यक है वैसे ही बुजुर्गो के लिए भरपूर नींद बबुत जरूरी है। हमेशा सूर्य उदय से पूर्व जागें। ब्रह्ममुहूर्त में जागना बहुत लाभ करी है। इस समय वातावरण में सत्व गुण व्याप्त होता है। वातावरण में ताज़ा प्राण वायु का संचार एवं शुद्ध उर्जा इस समय प्राप्त होती है। सुबह में प्रकृति दर्शन  योगाभ्यास व ध्यान अवश्य करें।

तेल मालिश: - जो लोग 60 साल या अधिक के है उनके लिए व्यायाम निषेध है। जैसे- बच्चों को निषेध है। ऐसे लोगों को मालिश बहुत जरूरी है। जैसे वच्चों वैसे ही वात वालो की प्रतिदिन तिल के तेलों से मालिश करने से वात समभाव में रहता है। सरसों का तेल भी मालिश के लिए उत्तम है। सर, तलवे और कान कि ज्यादा मालिश करनी है। यदि व्यायाम करें तो बिलकुल हल्का करें, लेकिन पसीने का नियम इन पर लागु नहीं होगा।

स्नान : - तेल मालिश के पश्चात स्नान करें। नीम की डंडी को रात भर पानी में भिगोकर रखने से वह नर्म हो जाती है। इसे दाँतों से चबाकर टूथब्रश का कार्य लिया जा सकता है।  मसूड़ों, दाँतों और जिव्हा को इससे सॉफ करें। 

पूजा-पाठ: - पूजा-पाठ और भगवान की भक्ति ज्यादा से ज्यादा करनी चाहिए। इससे मस्तिष्क में उर्जा उत्पन्न होती है। यह मन की शुचिता के लिए नित्यप्रति किया जाना चाहिए। कम से कम 15 मिनट ध्यान में अवश्य बैठें।

भोजन: - अब सूर्य उदय के पश्चात दो से ढाई घंटे के अंदर भोजन करें। इस समय अपनी पसंद भोजन, पेट भर के करें। लेकिन रात को किछ न खाए। शाम 6 बजे के आस-पास में भी डिनर करलें। भोजन के बाद बज्रासन में बैठे और टहलने अवश्य जाएँ। 9 बजे के आस-पास रात में दूध पीकर सो जाएँ।

दोपहर और शाम का भोजन सादा और पौष्टिक होना चाहिए। शाम में तो खिचड़ी, दलिया आदि का सेवन उत्तम है।

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